किस्सा तो मुख्तसर सा है कोई सुने तो,अल्लाह गुजरा बहुत नशाइस्ता मुझपे उसने भी माना एहसानों के हिसाबो-खितब उंगलियों पे उनके, गर्दिशे -पैहम मे हर ठिकाना था मुस्तहिल, कभी छुटा कोइ शहर कभी कोई मुहल्ला ।
पुछा रोज फ़रिश्तो से कब करोगे,बिस्मिल्लाह् ।
होता कहॉ है मगर तक्दीरों मे कोई, इस्लाह।
बेखबर हम सब कुछ करते रहे,लिल्लाह।
No comments:
Post a Comment