Thursday, October 30, 2008

मुहल्ला

किस्सा तो मुख्तसर सा है कोई सुने तो,अल्लाह
पुछा रोज फ़रिश्तो से कब करोगे,बिस्मिल्लाह् ।

गुजरा बहुत नशाइस्ता मुझपे उसने भी माना
होता कहॉ है मगर तक्दीरों मे कोई, इस्लाह।

एहसानों के हिसाबो-खितब उंगलियों पे उनके,
बेखबर हम सब कुछ करते रहे,लिल्लाह।

गर्दिशे -पैहम मे हर ठिकाना था मुस्तहिल,

कभी छुटा कोइ शहर कभी कोई मुहल्ला ।

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