Thursday, September 3, 2009

बाज़ार

उठती है निगाह जिधर बाज़ार नज़र आता है |
कोई बिकता हुआ कोई खरीदार नज़र आता है |

सिर्फ जरूरतों के उसूल पर जीता है जमाना ,
जो न किसी काम का वो बेकार नज़र आता है |

आते-जाते हर शख्स की है निगाह मुझ पर,
शायद मुझमे कोई कारोबार नज़र आता है |

ख्वाहिशो के दश्त में हर आदमी गुम है,
रूह है गिरवी जेबों में उधार नज़र आता है |

Thursday, February 5, 2009

हवाला

घर में उन चारों के अतिरिक्त
रहती है एक - डायरी |
जिस में मिलता है -रोज की सब्जी की कीमते \
\दूध का हिसाब\
परचूनी क्रय \माँ की गठिया की दवाई का मूल्य,
और पिताजी की ऐनक की मरम्मत का खर्च का हिसाब
डायरी के पन्ने
महीने भर के खर्च का हिसाब
रखते है बड़ी सावधानी से,
फ़िर भी न जाने कैसे ? उसमे
नई साडीयो की सिलवटे\
लिपस्टिक के शेड्स\मंहगे क्रीमों की तीक्ष्ण गंध
सिगरेट के छल्लों और सप्ताह के आख़िर मे
रेस्तरा का बिल\
मल्टीप्लेक्स के दो आधे टिकटों सहित नदारद है ,
घर की कोई डायरी
इन का हवाला नही देती !

Friday, January 2, 2009

मैने तेरे ही ख्यालों की परवाह की है

हमने कब रिवाजों की परवाह की है
बस वक्त के इशारो की परवाह की है |

जिनके सिरों पर अब बाम नही ,
किसने ऐसी दीवारों की परवाह की है |

वैसे तो था नही मै तेरा मकरूज़ ,
फ़िर भी तेरे तकाजों की परवाह की है |

ये अंधेरे ये बेबसी मेरे नही है
मैने तेरे ही ख्यालों की परवाह की है |