Thursday, September 25, 2008
मैंने इंतजार किया ...
अपनी सीमाओं से निकल कर तुम आ जाओ,
मेरी सरहदों में
मैंने इंतजार किया -
आँगन की चादर भर धूप दहलीज पार करे
मेरे कमरे में बिछे
अपने परिवेश से लड़ते हुवे ..हाथ तुमने बढाया था मुझ तक
तब भी शायद वीक्षक होकर देखता रहा तुम्हारा
सामर्थ........
अंह का सचेतन पाषाण बना
पूजे जाने की करता रहा कामना
वक्त का काफिला जब गुजर गया तेरे-मेरे दरमिया ॥
फिर ना उष्ण स्पर्श पाया,
ना ग्रीष्म मे तुम्हारी छाया
अब अक्सर सीधी निर्जन सड़क पर ठिठक जाता हूँ ॥
पदचापों से उठते है एक ही सवाल बार-बार
मैंने इंतजार क्यों किया ?
Saturday, September 20, 2008
हमने कब रिवोजो, कि परवाह की है
बस वक्त के इशारों, की परवाह की है
जिन के सिरों पर नही बाम अब
किसने ऐसी दीवारों, की परवाह की है
वैसे तो हम मकरुज नही थे किसी के मगर
जाने क्यों तेरे तकाजों, की परवाह की है
ये अंधेरे मेरी ख्वाहिशों का अंजाम नही
हमने तो बस तेरे इरादों, की परवाह की है
बाम = छत मकरुज = कर्जदार
Monday, September 8, 2008
बदहवास कोसी ...
बच्चे बूढे,
कच्चे चूल्हे /
घास के पुले,
कपड़े जूते/ टपरा,
बछिया,
आगन से खटिया /
रूपया, धान,
हदों के निशान /
बड़ी - पापड़
चिट्ठी पत्तरबच्चे बूढे,
कच्चे चूल्हे /
घास के पुले,
कपड़े जूते/ टपरा,
बछिया,
आगन से खटिया /
रूपया, धान,
हदों के निशान /
बड़ी - पापड़
मिट्टी के खिलोने ,
बिस्तर -बिछौने
आले की लालटेन
खुटी से बस्ते कापी ,पेन
बदहवास 'कोसी' ले गई कितना कुछ...अपने प्रवाह में
'कोसी' भटक रही है खानाबदोश अपंनी ही तलाश में
व्यवस्था/ चहरो से मुखोटे उतर गये है
संडास भरे प्रश्न फिर से पसर गये है
बिस्तर -बिछौने
आले की लालटेन
खुटी से बस्ते कापी ,पेन
बदहवास 'कोसी' ले गई कितना कुछ...अपने प्रवाह में
'कोसी' भटक रही है खानाबदोश अपंनी ही तलाश में
व्यवस्था/ चहरो से मुखोटे उतर गये है
संडास भरे प्रश्न फिर से पसर गये है
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